महान क्या है -- कर्म या भाग्य?

यह सवाल अक्सर बहस का मुद्दा बनता है कि कर्म प्रधान है या भाग्य? कर्म समर्थक ज़ाहिर है कि कर्म को बड़ा मानते हैं जब कि भाग्यवादी भाग्य को। मुझ से भी कई बार यह सवाल किया जा चुका है जिस कारण मुझे भी इस मसले पर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा। बहुत सोचने के बाद समझ में यह आया कि इनमें बड़ा-छोटा कोई नहीं है, बल्कि ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यानि यह दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। किसी का कर्म, किसी का भाग्य बन जाता है। इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि एक सूनसान जगह पर आम तोड़ने के लिए पत्थर चला रहे बच्चों का पत्थर यदि पेड़ के पास से गुज़र रहे किसी व्यक्ति के सिर पर लग जाता है तो इसे क्या माना जाएगा ? मैं समझता हूँ कि बच्चों का कर्म उस व्यक्ति का भाग्य बन गया। लड़कों ने उसे चोट पहुंचाने की नियत से पत्थर नहीं चलाये थे, यह महज़ इत्तेफाक था कि वह शख्स वहां से गुज़र रहा था और उसे पत्थर लग गया। जिसे उसका भाग्य या दुर्भाग्य कहा जा सकता है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो मेरी बात के समर्थन में दिए जा सकते हैं। कई बार सड़क के किनारे, अपनी साइड में चलते व्यक्ति को पीछे से आरही गाड़ी टक्कर मार देती है। यह गाड़ी चालाक का कर्म और पैदल चलने वाले का भाग्य था कि दुर्घटना हो गयी।
मृत्युशैया पर पड़ा एक अमीर व्यक्ति, जिसके प्राण निकल रहे हैं और वह बोल नहीं पा रहा। जब उससे पूछा जाता है कि उसकी संपत्ति किसे दी जाए तो वह ऊपर की ओर हाथ उठा, इशारा कर मर जाता है। लोगों को कुछ समझ में नहीं आता और वे उसकी सारी संपत्ति छत पर रहने वाले नौकर को दे देते हैं। उन्हें लगा कि वह उसी की ओर इशारा कर रहा था। कारण यह था कि नौकर ने मृतक की काफ़ी सेवा की थी और दूसरे मरने वाले का कोई रिश्तेदार भी नहीं था। जबकि वास्तव में मरने वाला हाथ उठा कर भगवान् की और इशारा कर रहा था और वह संपत्ति किसी मन्दिर को देना चाहता था। यहाँ भी मरने वाले का कर्म नौकर का भाग्य बन गया।